8 जून 2025, आरा का रमना मैदान। सूरज की तपिश में लहराते पार्टी के झंडे, जगह जगह टंगे पोस्टर और बैनर, लाखों की भीड़ का उत्साह, और मंच पर एक युवा नेता की गूंजती आवाज। यह था लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के राष्ट्रीय अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान की कल की रैली का दृश्य। चिराग की बिहार विधानसभा चुनाव लड़ने की सुगबुगाहट के बीच कल के एक बयान ने बिहार की सियासत में हलचल मचा दी। उन्होंने मंच से कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा
“अगर मेरी पार्टी और गठबंधन चाहेंगे, तो मैं बिहार विधानसभा चुनाव लड़ सकता हूँ।”
इस बयान ने बिहार के राजनीतिक गलियारों में नई बहस छेड़ दी। क्या चिराग पासवान 2025 के विधानसभा चुनाव में बिहार की सियासत का खेल बदलने वाले नेता साबित होंगे, या यह सिर्फ एक और सियासी दांव है?
चिराग का सियासी सफर
चिराग पासवान की कहानी उनके पिता, स्वर्गीय रामविलास पासवान की विरासत से शुरू होती है, जिन्होंने बिहार की दलित राजनीति को एक नई दिशा दी। चिराग ने 2014 में जमुई से लोकसभा सांसद बनकर अपनी सियासी पारी शुरू की और 2019 में उसी सीट से दोबारा जीत हासिल की। लेकिन 2024 का लोकसभा चुनाव उनके लिए मील का पत्थर साबित हुआ। हाजीपुर सीट से 1.70 लाख वोटों के अंतर से जीत और उनकी पार्टी, लोजपा (रामविलास), की बिहार में NDA को दी गई सभी पांच सीटों पर प्रचंड जीत ने उनकी सियासी ताकत को रेखांकित किया। इस सफलता ने उन्हें मोदी 3.0 सरकार में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्री का महत्वपूर्ण पद दिलाया।
चिराग की यह उड़ान बिहार के दलित और युवा मतदाताओं के बीच उनकी बढ़ती लोकप्रियता का प्रतीक है। उनका नारा “बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट” बिहार को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और कृषि में आत्मनिर्भर बनाने का विजन पेश करता है। लेकिन क्या यह नारा केवल सियासी रणनीति है, या इसमें वास्तविक बदलाव की संभावना है? यह सवाल बिहार की जनता और राजनीतिक पंडितों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है।
यह नारा युवाओं और दलित समुदाय, खासकर पासवान समुदाय, के बीच खासा लोकप्रिय है। बिहार में दलित आबादी लगभग 20% है, और पासवान समुदाय इसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। नीतीश कुमार द्वारा पासवानों को महादलित श्रेणी से बाहर किए जाने के बाद, इस समुदाय में चिराग के प्रति समर्थन बढ़ा है, जैसा कि 2024 के लोकसभा चुनाव में देखा गया।
हालांकि, यह नारा कितना प्रभावी होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि चिराग इसे जमीनी हकीकत में कैसे बदलते हैं। बिहार की सियासत में जातिगत समीकरणों और क्षेत्रीय मुद्दों का बोलबाला रहा है। चिराग का विजन भले ही प्रेरणादायक हो, लेकिन इसे लागू करने के लिए ठोस नीतियों और मजबूत संगठन की जरूरत होगी। उनके आलोचक मानते हैं कि यह नारा अभी तक एक आकर्षक स्लोगन से ज्यादा कुछ नहीं है, और इसे धरातल पर उतारना उनकी सबसे बड़ी चुनौती होगी।
चिराग के विधानसभा चुनाव लड़ने के मायने
मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा- 2024 की लोकसभा जीत ने चिराग को बिहार की सियासत में एक उभरते सितारे के रूप में स्थापित किया है। विधानसभा में प्रवेश उनके लिए मुख्यमंत्री पद की दावेदारी को मजबूत करने का रास्ता हो सकता है। यह कदम उन्हें केंद्र की राजनीति से इतर बिहार के विकास में सीधे योगदान का मौका देगा। हालांकि, NDA में नीतीश कुमार और भाजपा के मजबूत नेतृत्व के बावजूद उनकी यह महत्वाकांक्षा कितनी व्यावहारिक है, यह एक बड़ा सवाल है।
NDA में बढ़ता प्रभाव- 2020 में लोजपा ने NDA से अलग होकर चुनाव लड़ा था और नीतीश कुमार की जेडीयू को कई सीटों पर नुकसान पहुंचाया था। इस बार NDA के साथ रहते हुए चिराग की स्थिति मजबूत है। राजनीतिक सूत्रों के अनुसार, लोजपा (रामविलास) को 2025 में 25-28 सीटें मिल सकती हैं। लेकिन गठबंधन में सीट बंटवारे और नेतृत्व को लेकर तनाव की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। चिराग का बयान कि वे सभी 243 सीटों पर NDA की जीत सुनिश्चित करेंगे, उनकी महत्वाकांक्षा को दर्शाता है, लेकिन यह गठबंधन के भीतर सहयोगियों के बीच तनाव भी पैदा कर सकता है।
विपक्ष पर दबाव- चिराग की युवा छवि और दलित वोटबैंक पर पकड़ RJD और कांग्रेस जैसे विपक्षी दलों के लिए चुनौती बन सकती है। उनकी सक्रियता और NDA के साथ गठजोड़ विपक्ष के लिए मनोवैज्ञानिक दबाव का काम करेगा। लेकिन RJD के तेजस्वी यादव भी युवा मतदाताओं और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर मजबूत पकड़ रखते हैं, जिससे चिराग के लिए विपक्ष को पछाड़ना आसान नहीं होगा।
मतदाताओं को एकजुट करने की चुनौती- चिराग का पासवान समुदाय और युवाओं के बीच बढ़ता प्रभाव उनकी सबसे बड़ी ताकत है। लेकिन बिहार की सियासत में जातिगत समीकरण जटिल हैं। पासवान समुदाय भले ही चिराग के साथ हो, लेकिन अन्य दलित और गैर-दलित समुदायों को एकजुट करना उनके लिए चुनौतीपूर्ण होगा।
चिराग पासवान की राह में कई बाधाएँ हैं। 2020 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी केवल एक सीट जीत पाई थी, इस बार NDA में रहते हुए उन्हें नीतीश कुमार और भाजपा के साथ तालमेल बिठाना होगा, जो आसान नहीं है। नीतीश कुमार का अनुभव और जेडीयू का मजबूत संगठन चिराग की महत्वाकांक्षाओं पर ब्रेक लगा सकता है। इसके अलावा, लोजपा (रामविलास) का संगठन अभी भी जमीनी स्तर पर उतना मजबूत नहीं है, जितना जेडीयू, भाजपा या RJD का है।
चिराग के आलोचक यह भी कहते हैं कि उनकी “बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट” की नीति अभी तक ठोस योजनाओं में तब्दील नहीं हुई है। बिहार जैसे राज्य में, जहां बेरोजगारी, शिक्षा और बुनियादी ढांचे की कमी जैसे मुद्दे हावी हैं, चिराग को अपने विजन को नीतिगत स्तर पर लागू करने की स्पष्ट रणनीति दिखानी होगी। साथ ही, विपक्षी दलों, खासकर RJD, की मजबूत जमीनी मौजूदगी और तेजस्वी यादव की युवा अपील उनके लिए एक बड़ी चुनौती है।
चिराग पासवान की कहानी बिहार की सियासत में एक नई उम्मीद की तरह उभरी है। उनकी युवा अपील, दलित वोटबैंक पर पकड़, और “बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट” का विजन उन्हें 2025 के विधानसभा चुनाव में एक संभावित गेम चेंजर बनाता है। उनकी पार्टी का 2024 का प्रदर्शन और NDA में उनकी मजबूत स्थिति उनकी ताकत हैं। लेकिन गठबंधन के भीतर तालमेल, जमीनी संगठन की कमी, और विपक्ष की मजबूत चुनौती उनकी राह में रोड़े हैं।
आरा के रमना मैदान से उठा यह सियासी तूफान बिहार की राजनीति को किस दिशा में ले जाएगा, यह समय बताएगा। क्या चिराग वाकई बिहार की सियासत का खेल बदल देंगे, या यह उनका एक और सियासी दांव साबित होगा? यह सवाल बिहार की जनता और सियासी विश्लेषकों के बीच चर्चा का केंद्र बना रहेगा। 2025 का विधानसभा चुनाव निश्चित रूप से चिराग पासवान की नेतृत्व क्षमता और सियासी रणनीति की सबसे बड़ी परीक्षा होगी।
(Images Credit Social Media Handle of Chirag Paswan)