दुनियाभर के कैथोलिक ईसाइयों के सर्वश्रेष्ठ धर्म गुरु पोप फ्रांसिस का 88 साल की उम्र में कल निधन हो गया। वो पिछले कुछ दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे।
पोप के निधन के साथ ही इस बात की चर्चा शुरू हो चुकी है कि अगला पोप कौन होगा?
पोप का चुनाव कैसे होता है? इस चुनाव का इतिहास क्या है? चुनाव की पूरी प्रक्रिया में कौन शामिल होता है? आज़ इस आर्टिकल में हम इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे।
पोप के चुनाव का इतिहास
पोप के चुनाव प्रक्रिया को कॉन्क्लेव (Conclave) कहा जाता है। यह परंपरा लगभग दो सहस्राब्दियों से चली आ रही है हालांकि समय-समय पर इसमें कई बदलाव किए गए।
प्रारंभिक इतिहास
पहली शताब्दी से तीसरी शताब्दी के दौरान ईसाई समुदायों में पोप का चयन आपसी सहमति से होता था। रोम के बिशप, स्थानीय पादरी, लोगों और आसपास के बिशप मिलकर पोप का चुनाव करते थे। इस प्रक्रिया में कोई लिखित नियम नहीं थे।
चौथी शताब्दी: रोमन राजाओं का प्रभाव बढ़ने से कुछ पोपों के चयन में सम्राटों का हस्तक्षेप से होने लगा। यह दौर राजनीतिक प्रभाव और विवादों से भरा था।
मध्य युग (8वीं-11वीं शताब्दी): इस काल में पोप का चुनाव सामान्यतः रोमन अभिजात वर्ग, सम्राटों या प्रभावशाली परिवारों द्वारा प्रभावित होने लगा था। कई बार भ्रष्टाचार और सिमनी (पद खरीदना) जैसी समस्याएँ सामने आईं।
1059 का सुधार: पोप निकोलस द्वितीय ने “इन नॉमिन डोमिनी” घोषणा जारी की, जिन्होंने पोप के चुनाव को कार्डिनल्स के हाथों में सौंप दिया। यह पहली बार था जब कार्डिनल्स को आधिकारिक रूप से मतदाता बनाया गया।
1274: दूसरा ल्योन परिषद में पोप ग्रेगरी दसवें ने उब्बी पेरिकुलम नियम लागू किया, जिसने कॉन्क्लेव की नींव रखी। इसमें कार्डिनल्स को एकांत में बंद करके मतदान करने का प्रावधान था, ताकि बाहरी हस्तक्षेप रोका जा सके।
16वीं शताब्दी से 20वीं शताब्दी: कॉन्क्लेव की प्रक्रिया को और पारदर्शी बनाया गया। 1621 में पोप ग्रेगरी पंद्रहवें ने लिखित मतपत्रों और गुप्त मतदान की प्रणाली को औपचारिक रूप दिया।
20वीं शताब्दी: पोप पायस बारहवें और पोप जॉन पॉल द्वितीय ने कॉन्क्लेव के नियमों में बदलाव किए, जैसे 80 वर्ष या उससे अधिक उम्र के मतदाताओं को मतदान प्रक्रिया से बाहर करना। बाद में 21वीं शताब्दी में पोप बेनेडिक्ट सोलहवें और पोप फ्रांसिस ने भी कॉन्क्लेव नियमों में मामूली बदलाव किए, जैसे समय सीमा और प्रक्रिया की स्पष्टता को बढ़ाना।
पोप के चुनाव की प्रक्रिया (कॉन्क्लेव)
कॉन्क्लेव एक गुप्त और पवित्र प्रक्रिया है, जो वेटिकन सिटी के सिस्टिन चैपल में होती है। इसे निम्नलिखित चरणों में समझा जा सकता है:
1. पोप का निधन या इस्तीफा “Sede Vacante”
जब पोप का निधन हो जाता है या वह इस्तीफा देता है। तो चर्च का नेतृत्व रिक्त हो जाता है। इस अवधि को सेडे वेकेंट “खाली सिंहासन” कहा जाता है।
कैमरलेंगो, पोप के प्रशासनिक प्रभारी और कॉलेज ऑफ कार्डिनल्स इस अवधि में चर्च का प्रबंधन करते हैं।
2. कॉन्क्लेव की तैयारी
पोप के निधन या इस्तीफे के 15-20 दिनों के भीतर कॉन्क्लेव शुरू होता है।
केवल 80 वर्ष से कम आयु के कार्डिनल्स मतदान करते हैं। अधिकतम 120 कार्डिनल्स मतदाता हो सकते हैं।
सिस्टिन चैपल को कांक्लेव के लिए तैयार किया जाता है, और बाहरी दुनिया से संपर्क रोकने के लिए इसे पूरी तरह सील कर दिया जाता है।
3. कॉन्क्लेव की शुरुआत
प्रो एलिगेंडो पोंटिफिस मास: कॉन्क्लेव शुरू होने से पहले, कार्डिनल्स सेंट पीटर बेसिलिका में एक विशेष मास में भाग लेते हैं। कार्डिनल का ग्रुप सिस्टिन चैपल में प्रवेश करता हैं, और दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं। इस दौरान प्रसिद्ध लैटिन वाक्य “एक्स्ट्रा ओम्नेस” अर्थात “सभी बाहर” बोला जाता है, जिसका अर्थ है कि गैर-जरूरी लोग बाहर चले जाएँ। इसके बाद कार्डिनल्स शपथ लेते हैं कि वे प्रक्रिया की गोपनीयता बनाए रखेंगे और चर्च के हित में मतदान करेंगे।
4. मतदान प्रक्रिया
पहले दिन: एक मतदान सत्र हो सकता है।
दूसरे दिन से: प्रतिदिन चार मतदान सत्र होते हैं दो सुबह और दो दोपहर।
सभी कार्डिनल गुप्त रूप से एक पर्ची पर उम्मीदवार का नाम लिखते हैं और उसे एक चांदी के प्लेट में डाल देते है।
मतपत्रों की गिनती तीन कार्डिनल्स द्वारा की जाती है। मतपत्रों को ऊंची आवाज में पढ़ा जाता है ताकि सभी सुन सकें।
दो-तिहाई बहुमत: पोप चुने जाने के लिए किसी भी उम्मीदवार को कम से कम दो-तिहाई वोट चाहिए। यदि 33 राउंड के बाद भी कोई उमीदवार नहीं चुना जाता, तो नियमों के अनुसार साधारण बहुमत से भी निर्णय हो सकता है। हालांकि इसकी संभावना बहुत कम होती है। प्रत्येक सत्र के बाद, मतपत्रों को जला दिया जाता है।
काला धुआँ: यदि कोई पोप नहीं चुना गया, तो मतपत्रों को रसायनों के साथ जलाया जाता है, जिससे काला धुआँ निकलता है।
सफेद धुआँ: अगर पोप चुन लिया जाता है, तो सफेद धुआँ निकलता है, जो दुनिया को नए पोप के चयन का संकेत देता है।
5. पोप की घोषणा
जब कोई उम्मीदवार दो-तिहाई वोट प्राप्त कर लेता है, तो डीन ऑफ द कॉलेज ऑफ कार्डिनल्स उससे पूछता है: “क्या आप चुनाव स्वीकार करते हैं?” यदि वह सहमति देता है, तो वह पोप बन जाता है।
नया पोप अपना पोप नाम चुनता है जैसे जॉर्ज मारियो बर्गोग्लियो ने “फ्रांसिस” चुना था।
सेंट पीटर बेसिलिका की बालकनी से नए पोप की घोषणा की जाती है। प्रोटोडेकन कार्डिनल प्रसिद्ध वाक्य बोलता है: “हबेमुस पापम” यानी हमारे पास पोप है, और नए पोप का नाम और शीर्षक घोषित किया जाता है। इसके बाद नया पोप भीड़ को आशीर्वाद देता है।
6. कॉन्क्लेव के बाद
नए पोप का राज्याभिषेक नहीं होता पहले यह परंपरा थी लेकिन 1978 में इसे खत्म कर दिया गया, लेकिन एक उद्घाटन मास आयोजित होता है। और उसके बाद पोप वेटिकन में अपने कर्तव्यों की शुरुआत करता है।
अगला पोप कौन हो सकता है?
पोप की उम्मीदवारी के लिए दुनिया भर से कई नाम रेस मे हैं।
कार्डिनल पीटरो पारोलिन (इटली):
वेटिकन के स्टेट सेक्रेटरी है। कूटनीतिक अनुभव और वैश्विक चर्च में मजबूत प्रभाव रखते हैं। उदारवादी दृष्टिकोण, के माने जाते हैं जो पोप फ्रांसिस की नीतियों को जारी रख सकते है।
कार्डिनल लुइस एंटोनियो ताग्ले:
फिलीपींस के ताग्ले करिश्माई व्यक्तित्व और गरीबों के प्रति समर्पण रखने वाले व्यक्ति हैं। अगर ताग्ले पोप बनते हैं तो ये एशिया से पहले पोप होंगे जो चर्च के वैश्वीकरण को दर्शाएगी।
कार्डिनल माटेओ जुप्पी (इटली):
बोलोन्या के आर्कबिशप हैं। बुद्धिजीवी और उदारवादी छवि रखते हैं जो यूरोप में चर्च की स्थिति को मजबूत कर सकते हैं। पोप फ्रांसिस के सुधारों का समर्थक माने जाते हैं।
कार्डिनल रॉबर्ट प्रीवो (पेरू):
डिकास्ट्री फॉर बिशप्स के प्रीफेक्ट हैं। लैटिन अमेरिकी होने की वजह से मजबूत दावेदार रखते हैं। सामाजिक न्याय और पर्यावरण जैसे मुद्दों पर मुखर हैं।
कार्डिनल क्रिस्टोफ शोनबोर्न (ऑस्ट्रिया):
वियना के आर्कबिशप हैं। रूढ़िवादी और उदारवादी विचारों के संतुलन के लिए जाने जाते हैं। यूरोप में चर्च की चुनौतियों से निपटने की क्षमता रखते हैं।