“खुले में शौच मुक्त बिहार: आंकड़ों से आगे की हकीकत”

आपने पंचायत वेब सीरीज देखी है? अगर देखे होंगे तो सरकार द्वारा शौचालय की सुविधा पाने का संघर्ष आपको बखुबी पता होगा। विनोद की ज़िद से भी वाकिफ हीं होंगे। आज़ इंस्टाग्राम स्क्राॅल करते करते मुझे विनोद का वो विडियो दिख गया जिसमें वो चंदन और प्रहलाद चाचा के सामने खुले में शौच करने की ज़िद कर रहा होता है। इस सीन को देखकर मेरी नजर बिहार के गांव देहात की ओर चली गई। और मन में सवाल आया कि क्या हमारा बिहार सचमुच खुले में शौच मुक्त प्रदेश है? मैंने कुछ खबरें पढ़ी कुछ रिपोर्ट टटोले और मुझे जो मिला वो आपके सामने है।

2 अक्टूबर 2019 को बिहार प्रदेश को “खुले में शौच मुक्त” अर्थात Open Defecation Free (ODF) घोषित किया गया, जिसे स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) और लोहिया स्वच्छ बिहार अभियान की बड़ी सफलता के तौर पर देखा गया। सरकारी कागजों के मुताबिक, 2014 से 2025 तक प्रदेश में 1.46 करोड़ व्यक्तिगत घरेलू शौचालय बनाए गए, और ग्रामीण शौचालय कवरेज नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे NFHS-4, 2015-16 के 25.2% से बढ़कर NFHS-5 (2019-21) में 62.1% तक पहुँच गया। शहरी क्षेत्रों में यह आँकड़ा 82.6% तक पहुँचा। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे अपने महात्वाकांक्षी प्रोजेक्ट “सात निश्चय” योजना की उपलब्धि करार दिया, जिसमें 70,000 राजमिस्त्रियों और 52,000 स्वच्छाग्रहियों का योगदान था। इसी क्रम में बिहार के सितामढी जिले ने एक दिन में 1.20 लाख शौचालय बनाकर एक नया नज़ीर पेश किया।
ये आँकड़े और कोशिश बेशक प्रभावी हैं, लेकिन क्या ये बिहार को वास्तव में”खुले में शौच मुक्त” बनाते हैं? इस दावे की सतह को खरोंचने पर कई खामियाँ सामने आती हैं।

कागजों पर ODF:-

ODF का मतलब केवल शौचालयों की संख्या गिनाना नहीं होता है; इसमें “पर्यावरण में मानव मल का न दिखना” और “शौचालयों का नियमित उपयोग” भी शामिल है।
Unicef और WHO की 2021 की जेएमपी रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार की कुल ग्रामीण आबादी का 22% घरों में शौचालय होने के बावजूद भी अभी भी खुले में शौच करता है।

नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (NSSO) के 2018 के सर्वे में भी यह पाया गया कि 3.5% ग्रामीण परिवार घर में शौचालय रहते हुए भी उसका उपयोग नहीं करते हैं।

2020 में प्रदेश के बांका जिले के जयपुर पंचायत की एक रिपोर्ट ने इसे और विस्तृत रूप से उजागर किया, जहाँ 30% लोग खुले में शौच को “सुविधाजनक” मानते हैं।

यह स्थिति परिवर्तन की कमी को दर्शाती है, जो ODF की नीव है। कारणों में पुरानी परंपरागत सांस्कृतिक आदतें, पानी का संकट, और शौचालयों की बदहाल स्थिति शामिल हैं। बिहार के अनेकों गांवों में आपको शौचालयों में गोबर के उपले जलावन की लकड़ियां इत्यादि रखी हुई मिल जाएंगी।
सवाल यह उठाता है कि क्या अभियान का जोर सिर्फ कागजों पर संख्या बढ़ाने पर था?

सत्यापन प्रक्रिया की कमजोरी:-

स्वच्छ भारत मिशन के नियमों के मुताबिक, ODF घोषित क्षेत्रों का हर 6 महीने में सत्यापन कराना होता है ताकि यह पता चल‌ सके कि उस क्षेत्र का दर्जा बरकरार है।
2019 तक बिहार में 38,000 से अधिक गाँवों को ODF घोषित किया गया, लेकिन “द वायर” की 2020 की रिपोर्ट की मानें तो, 1,374 गाँवों में एक बार भी पुनः सत्यापन नहीं हुआ। अररिया जिले के 730 ODF गाँवों में से 21 और बांका के 1,610 गांवों में से 346 का सत्यापन कराया बाकी था। यह घटना इस दावे पर संदेह पैदा करती है। अगर वेरिफिकेशन हीं नहीं हुआ, तो यह कैसे माना जाए कि एक चिन्हित क्षेत्र वास्तव में ODF हैं?

शौचालयों की गुणवत्ता और बुनियादी सुविधाओं की कमी:-

BBC की 2019 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार रोहतास जिले के कई गाँवों में बिना दरवाजे और छत के क‌ई शौचालय बने हुए मिले। यहां गड्ढे की गहराई भी मानक के अनुसार नहीं पाई गई।
लखीसराय के सूर्यगढ़ा प्रखंड में 2022 में आई एक रिपोर्ट में पता चला कि 60% पब्लिक शौचालय बंद या जर्जर स्थिति में हैं, क्योंकि इनमें ना तो पानी की व्यवस्था है और ना ही बिजली की। जल जीवन मिशन अंतर्गत 2025 तक बिहार के 70% ग्रामीण घरों में नल से जल पहुँचाने का लक्ष्य सरकार द्वारा रखा गया था था, लेकिन 2023 की सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार, यह केवल 48% तक पहुँचा। पानी की कमी शौचालयों को बेकार करती है, जिसके कारण लोग खुले में शौच करने को मजबूर हैं।

पटना के स्लम क्षेत्रों में भी यही स्थिति है, जहाँ 40% सामुदायिक शौचालय उपयोग करने की स्थिति में नहीं हैं। यह महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष रूप से परेशानी का सबब बन रहा है।

स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर भी दावे अधूरे हीं हैं। NFHS-5 के मुताबिक, बिहार में 5 साल से कम उम्र के बच्चों में डायरिया की दर 9.2% है, जो राष्ट्रीय दर 7.3% से अधिक है। यूनिसेफ की रिपोर्ट पर नजर डालें तो खुले में शौच के कारण जल स्रोतों का दूषित होना और पर्यावरण प्रदूषण इसकी वजह है।

हालाँकि, इस अभियान के कुछ सकारात्मक पहलू भी हैं। शौचालयों की उपलब्धता से महिला सुरक्षा में सुधार हुआ है, क्योंकि रात में खुले में जाने की उनकी मजबूरी कम हुई‌ है। सीतामढ़ी जैसे जिलों में तेजी से शौचालय निर्माण और अभियानों ने लोगों में स्वच्छता के प्रति जागरूकता को बढ़ाई है। लेकिन ये सकारात्मक बदलाव कहीं कहीं हैं और व्यापक स्तर पर अभी बहुत दूर है।

बहरहाल, “खुले में शौच मुक्त बिहार” का दावा तकनीकी रूप से भले हीं सही हो सकता है, क्योंकि शौचालय निर्माण के लक्ष्य सरकार ने हासिल कर लिए हैं। लेकिन यह एक संतोषजनक तस्वीर पेश करता है। उपयोग की कमी, सत्यापन में लापरवाही, खराब गुणवत्ता, पानी की कमी, और भ्रष्टाचार इस अभियान को कागजों की जीत तक हीं सीमित करते हैं। सच्चा ODF दर्जा तभी संभव है जब सरकार संख्याओं से हटकर जमीनी स्तर पर कार्य करे। बिहार ने इस दिशा में बहुत सकारात्मक कदम बढ़ाए हैं, लेकिन यह कह‌ देना कि वह पूरी तरह “खुले में शौच मुक्त” हो गया है, हकीकत से परे है। अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना है, और इसके लिए जरूरत है ईमानदार आत्म-मूल्यांकन और ठोस सुधारों की।

धन्यवाद।

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